हमारी प्रवृत्ति ध्वंसात्मक नहीं, सृजनात्मक होनी चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, आक्रोश, धर्म-विरोध, निंदा जैसी मनःक्षेत्र की आक्रमक प्रवृत्तियाँ कभी-कभी ही आवश्यक होती हैं। कितने ही व्यक्ति निषेधात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। दोष-दर्शन और निंदा वर्णन और बदला लेने की योजनाएँ बनाने में उनका कौशल नष्ट हो जाता है। फलतः उनके पास उपयोगी सृजन के लिए बौद्धिक क्षमता बचती ही नहीं। दिलचस्पी ही चली गई तो शरीर से उपयोगी श्रम भी कैसे बन पड़ेगा? सृजन ही मानवी प्रतिभा का सदुपयोग है। उसी से व्यक्ति यशस्वी बनता और अपनी कृतियों से अनेकों को सुखी-समुन्नत बनाता है।
यह सब सरल और स्वाभाविक है। जीवन का सहज प्रवाह सुख-शान्ति की ओर बहता है, उसे यथावत चलने दिया जाए और बुद्धिमत्ता के नाम पर बरती जाने वाली मूर्खता प्रगति के बहाने अपनाई गई अवगति से यदि बचा जा सके तो पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाली वह सुखद प्रक्रिया चलती ही रहेगी, जिसका आनंद लेने के लिए यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर उपलब्ध हुआ है।
अखण्ड ज्योति-से
यह सब सरल और स्वाभाविक है। जीवन का सहज प्रवाह सुख-शान्ति की ओर बहता है, उसे यथावत चलने दिया जाए और बुद्धिमत्ता के नाम पर बरती जाने वाली मूर्खता प्रगति के बहाने अपनाई गई अवगति से यदि बचा जा सके तो पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाली वह सुखद प्रक्रिया चलती ही रहेगी, जिसका आनंद लेने के लिए यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर उपलब्ध हुआ है।
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