Thursday, 18 May 2017

जो मुझसे शुरू होकर,

जो मुझसे शुरू होकर,
मुझ तक ही पहुंचती है,
वो आग मेरे मन से,
हर रोज गुजरती है ।
मैंने जिसे चाहा ,
वो इंशां से खुदा बन बैठा,
विश्वास की हर दीवार,
अब हर रोज दरकती है ।
चाहे छुपा लो खुद को,
जितने भी नकाब में,
लेकिन हर एक नकाब,
एक दिन सरकती है,
हम खामोश रहते हैं मगर,
लहू में है वो रंग,
कि बहार की हर कली,
हमसे ही निखरती है ।
याद रखना कि अनुकरण,
भक्ति है विद्रोह नहीं,
ताश की दुनिया,
सांसों से बिखरती है ।
रोको सितम अपने,
हमें कुछ और जीने दो,
छीनो मत हमसे वो बदली,
जो हमारे खेतो में बरसती है ।
है अभी वक्त,
मेरे रुह की तपिश महसूस करो,
ये वो आग है जो,
आसमान से सीने में उतरती है,
ये आग मेरे मन से,
हर रोज गुजरती है ।

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