Thursday, 18 May 2017

"जीने का मजा"

"जीने का मजा"

जब थोड़े में मन खुश था
तब जीने का मजा हीं कुछ और था
नहीं थे जब ऐसी कूलर
तब छत पर सोने का मजा कुछ और था

गर्मी की भरी दोपहर में झरती मटकी का
पानी पीने का वो दौर कुछ और था
रात में छत पर रखी सुराही का ठंडा पानी
पीने का मजा हीं कुछ और था

शाम होते हीं छत पर पानी से छत की तपन कम करते
उठी सौंधी खुशबु कैसे भूल सकता है कोई
फिर प्यार से लगाए किसी दूसरे के बिस्तर पर जाकर
जोर से पसरने का मजा ही कुछ और था

बंद हवा में वो पंखी का झलना
आज भी याद है मगर
ठंडी हवा के पहले झोंके से छायी
शीतलता का मजा हीं कुछ और था

चाँद तारों से झिलमिलाते आसमान को
निहारने का आलम आज कहाँ नसीब है
ध्रुव तारे और सप्तऋषि से बाते करने का
तब मजा हीं कुछ और था

बंद कमरो में कब सुबह हो जाती है
अब तो पता हीं नहीं चलता
सूरज की पहली किरण के साथ तब
आँख मिचोली करने का मजा ही कुछ और था

ट्रेडमिल पर खड़े खड़े भले ही कितने हीं
मील क्यों न दौड़ ले आज हम
पर ताज़ी हवा में टहलने का
तब मजा ही कुछ और था

सब कुछ होते हुए भी आज
मन में संतुष्टि की कमी खलती है
जब थोड़े में मन खुश था,तब जीने का मजा हीं कुछ और था🙏👏👌👏

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