Thursday, 18 May 2017

हवा में; अपनी कंपकंपाती उंगलियों से ।

हवा में; अपनी कंपकंपाती उंगलियों से ।
एक अनजानी रुह को छुआ मैंने,
मुझे लगा,शायद वो तुम थीं !
अंगों में वही लर्जिश,
वही दिलफरेब लोच,
वही लजाती -सी उंगलियां,
जिन्हें मैं अक्सर महसूस करता हूं,
अपनी नजरों को,
ख्वाबों का पैरहन पहनाते हुए,
मुझे लगा शायद वो तुम ही थीं!
हवा के सरसराहट जैसी,
मेरी सांसों से गुजरजाने वाली,
जब हमारे पास खाने को कुछ नहीं होता,
तब उपवास का बहाना बनाकर,
मुस्कराते हुए मुझे भुने चावल खिलाकर,
मुझसे लिपटकर सो जाने वाली,
हां वो तुम ही तो थीं!
जेठ की जलती दोपहरी में खेतों पर,
मेरे साथ साथ जलती थीं,
चूम लेती थीं अपने पपड़ियाये होठों से,
मेरी गंदी हो रही हथेलियों को, 
पानी पीते हुए जब देखता था आपको मैं,
अपने गर्म हाथों से मेरी आंखें ढंक लेती थीं ।
हां वो बस तुम ही थीं!
मगर देखिए हमने आपको प्यार ही नह़ी करते थे,
कुछ लोग हमपर ये इल्जाम लगाते हैं,
हम लड़े मगर लड़के भी प्यार ही किया,
ये लोग आखिर क्यों नहीं समझ पाते हैं,
मेरे लिए नसीब से भी लड़ने वाली ,
आओ ना लोग हमपर इल्जाम लगाते हैं,

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