स्थायित्व का अर्थ
मेरे पिताजी अक्सर कहा करते थे, कि सैटेल तो केवल डस्ट होती है। उम्र के लगभग 33 बसंत देख चुकने के बाद आज भी जब कभी इस विषय में सोचता हूँ तो लगता है कि ये बात कितनी प्रासंगिक है। बचपन से ही हमें सपने दिखाए जाते है कि हम ये कर सकते है, वो कर सकते है और हमारे सामने संभावनाओं का एक विशाल समुद्र होता है। समय के साथ-साथ इसकी परिणीति अपनी प्रासंगिकता खोने लगती है। और धीरे-धीरे संभावनाओं की प्रकृति भी संकुचित होने लगती है। फिर भी बचपन के उसी स्वप्नलोक में से हम अपने लिए एक लक्ष्य का चुनाव करते है। अच्छा-बुरा, कैसा भी हो लक्ष्य सिर्फ लक्ष्य होता है। और हम मे से काफी लोग उस लक्ष्य को हासिल करने में अपना सब कुछ होम कर देते है। परंतु वो लोग जो अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त भी कर लेते है, भले ही दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये परंतु अक्सर वास्तविकता के धरातल पर उनके सपनों का दुखद अंत हो जाता है। बचपन से जिस सपने को जिया, जिसके अतिरिक्त कुछ और सोचा ही नही। वो तो बिल्कुल वैसा नही है, जैसा सुना था या विश्वास था। आदमी की हालत उस कुत्ते के जैसी हो जाती है, जो हर गुजरने वाली गाड़ी के पीछे भागता तो है मगर गाड़ी रुकने के बाद उसे ये नही पता होता है कि अब करना क्या है?
मेरे एक मित्र ने कहीं सुन रखा था कि हेल्थ मैनेजमेंट में बड़ा स्कोप है। जबरदस्त तैयारी की, एक अच्छे इंस्टिट्यूट में दाखिला भी मिल गया। अच्छी खासी फीस चुकाने के बाद आखिरकार प्लेसमेंट में एक हॉस्पिटल के लिए मार्केटिंग का काम मिला। पहले न नुकुर करने के बाद जब आखिरकार उन्होंने नौकरी कर तो ली मगर उसमे रम नही पाए। दूसरी नौकरी में उन्हें मनचाहा काम तो मिला मगर ये उनके संजोये सपनो का अंत ही साबित हुआ। ये तो वही बात हो गयी कि आप किसी होटल में जाकर कोई डिश आर्डर करें मगर जब वो डिश आपके सामने आए तो आपको पता चले कि यह तो वो डिश है ही नही जो मैंने आर्डर की थी। होटल के आर्डर से इतर आप रियलिटी में इस बात के लिए लड़ भी नही सकते है और फिर अगर लड़े भी तो किससे? आखिर गलती किसकी है? अक्सर हर जगह तमाम ऐसे लोगो का एक विशाल हुजूम आपको मिल जाएगा जो कुछ न कुछ बंनने की लालसा लिए आता है। मसलन मैं पुलिस ऑफिसर बनूंगा, आईएएस बनूंगा ये बनूंगा, वो बनूंगा वगैरह -वगैरह और अगर इस बात को दरकिनार कर दिया जाए कि उनमें से कितने लोग बनेंगे तो भी क्या वास्तव में वो जो चाहते है बनने के बाद उसमें संतुस्ट भी होंगे। कुछ लोग तो महज इस वजह से भी उसी काम को करते रहने के लिए मजबूर होते है कि अगर उन्होंने अपने बहुप्रतीक्षित कल्पित सपने को तोड़ दिया तो लोग क्या कहेंगे? एक ही तो काम खुद के लिए किया और उसमें भी मन नही लगा।
ये परिस्थिति लव और इनफैचुएशन जैसी होती है, फर्क करना मुश्किल होता है कि सच क्या है? और कई बार हम इनफैचुएशन को ही सच्चा प्यार समझ बैठते है। हर कोई सैटेल होना चाहता है, मगर सैटेल होने का मतलब शायद ही उन्हें पता हो। जहां तक मुझे लगता है, सैटेल होने का मतलब अच्छा-खासा पैसा कमाने से है, या शायद नौकरी के नियत घंटे या फिर शायद ऐसी सुविधाओ का लाभ जिससे वो या तो जीवन पर्यन्त वंचित रहे हो अथवा उसके लिए उन्हें अतिरिक्त खर्च वहन करना पड़ता हो। और फिर फ़र्ज़ कीजिये कि आपका अमुक काम में मन ही न लगे तो। सच पूछा जाए तो जीवन एक मरीचिका के समान है, हमेशा किसी न किसी तलाश में ये दौड़ लगी ही रहती है और अगर तलाश पूरी भी हो जाये तो उसके बाद क्या? कुंती को किसी भी देव को जब चाहे बुलाने का वरदान तो मिल गया, मगर इस वरदान का किया क्या जाए ये तो सोचा ही नही। सूर्य देव की कृपा से जब कर्ण का जन्म हुआ तो लोक लाज का भय समझ में आया। भस्मासुर को किसी को भी भस्म करने का वरदान मिला तो सोचा कि इसकी सत्यता का परीक्षण किसपर किया जाए? फिर खयाल आया कि क्यों न जिसने वरदान दिया हौ उसी पर परीक्षण किया जाए? कई बार हमें स्वयं नही पता होता है कि हम जो चाहते है वो हमारे लिए कितना महत्त्वपूर्ण है? और वास्तव में हम डस्ट नहीं है जो अंत में सैटेल हो जाये।
सुलेख-देवशील गौरव